मुहर्रम महीना की इस्लाम में मान्यताओं पर विस्तृत कवरेज देखिए शबनम शेख के साथ महानगर मुंबई से विशेष कवरेज GANGA 24 EXPRESS पर
इस्लाम एवं मुस्लिम समाज में मुहर्रम महीने की मान्यताओं पर खास कवरेज
मुहर्रम से ही इस्लामिक नए साल कि शुरुआत होती है. चांद दिखने पर 10 दिवसीय मोहर्रम (मुहर्रम) की शुरुआत होती है. शिया समुदाय के मुस्लिम मुहर्रम को गम के रूप में मनाते हैं. इस दिन इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों की शहादत को याद किया जाता है. मुहर्रम पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों के शहादत की याद में मनाया जाता है.
जानकारी देते हुए मौलाना गुलाम रज़ा ने बताया कि 61 वीं हिज़री तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी. इस जंग में इंसान के लिए और जुर्म के खिलाफ लड़ाई लड़ी गई. इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को शहीद कर दिया गया था. मुआविया नाम के शासक के निधन के बाद उनका राजपाट उनके बेटे यजीद को मिला. यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बनकर बैठ गया था. वह अपने वर्चस्व को पूरे अरब में फैलाना चाहता था, लेकिन उसके सामने पैगंबर मुहम्मद के खानदान का इकलौता चिराग इमाम हुसैन बड़ी चुनौती था. कर्बला में सन् 61 हिजरी से यजीद ने अत्याचार बढ़ा दिया तो बादशाह इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे, लेकिन रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर इमाम हुसैन के काफिले को रोक लिया.
गुलाम रज़ा कहते हैँ कि वह मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला में ठहरा. वहां पानी का एकमात्र स्रोत फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी पीने पर रोक लगा दी. इसके बाद भी इमाम हुसैन झुके नहीं. आखिर में जंग ही लड़नी पड़ी. इतिहास के अनुसार, 80000 की फौज के सामने हुसैन के 72 बहादुरों ने जंग लड़ी.गुलाम रज़ा ने कहा कि उन्होंने अपने नाना और पिता के सिखाए हुए सदाचार, उच्च विचार, अध्यात्म और अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत में प्यास, दर्द, भूख और पीड़ा सब पर विजय प्राप्त की. दसवें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों के शवों को दफनाते रहे और आखिर में खुद अकेले युद्ध किया फिर भी दुश्मन उन्हें मार नहीं सका. आखिर में अस्र की नमाज के वक्त जब इमाम हुसैन खुदा का सजदा कर रहे थे, तब एक यजीदी को लगा की शायद यही सही मौका है हुसैन को मारने का. फिर उसने धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया, लेकिन इमाम हुसैन तो मर कर भी जिंदा रहे. इस्लाम में उनकी मृत्यु अमर हो गई.
इस्लाम एवं मुस्लिम समाज में मुहर्रम महीने की मान्यताओं पर खास कवरेज
मुहर्रम की 10 तारीख को रोज-ए-आशुरा कहा जाता है क्योंकि इस दिन पैगम्बर मोहम्मद के नाती इमाम हुसैन की शहादत हुई थी. मुहर्रम महीने को गम या शोक के तौर पर मनाया जाता है.
मुहर्रम के महीने को लेकर शिया और सुन्नी दोनों की मान्यताएं अलग हैं. शिया समुदाय के लोगों को मुहर्रम की 1 तारीख से लेकर 9 तारीख तक रोजा रखने की छूट होती है. शिया उलेमा के मुताबिक, मुहर्रम की 10 तारीख यानी रोज-ए-आशुरा के दिन रोजा रखना हराम होता है. जबकि सुन्नी समुदाय के लोग मुहर्रम की 9 और 10 तारीख को रोजा रखते हैं. हालांकि, इस दौरान रोजा रखना मुस्लिम लोगों पर फर्ज नहीं है. इसे सवाब के तौर पर रखा जाता है.मुहर्रम का चांद दिखते ही सभी शिया मुस्लिमों के घरों और इमामबाड़ों में मजलिसों का दौर शुरू हो जाता है. इमाम हुसैन की शहादत के गम में शिया और कुछ इलाकों में सुन्नी मुस्लिम मातम मनाते हैं और जुलूस निकालते हैं. शिया समुदाय में ये सिलसिला पूरे 2 महीने 8 दिन तक चलता है. शिया समुदाय के लोग पूरे महीने मातम मनाते हैं. हर जश्न से दूर रहते हैं. चमक-धमक की बजाए काले रंग के लिबास पहनते हैं.
क्यों नहीं देते मुहर्रम की बधाई
मुहर्रम के महीने की दसवीं तारीख को पैगंबर मोहम्मद के नाती इमाम हुसैन शहीद हुए थे. इस गम में हर साल अशुरा के दिन ताजिए निकाले जाते हैं जो कि शोक का प्रतीक होता है. इसी कारण इस महीने को शोक का महीना भी कहते हैं. इस दिन शिया समुदाय मातम मनाता है और सुन्नी समुदाय रोजा-नमाज करके अपना दुख मनाता है.इस महीने के पहले दिन नए साल की शुरुआत पर बधाई देने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन अशुरा यानी मुहर्रम की दसवीं तारीख के दिन मोहर्रम की बधाई देना गलत है क्योंकि इससे मातम में डूबे लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है.
ताजिया निकालने का है रिवाज
वैसे तो मुहर्रम का पूरा महीना बेहद पाक और गम का महीना होता है. लेकिन मुहर्रम का 10वां दिन जिसे रोज-ए-आशुरा कहते हैं, सबसे खास होता है. 1400 साल पहले मुहर्रम के महीने की 10 तारीख को ही पैगम्बर मोहम्मद के नाती इमाम हुसैन को शहीद किया गया था. उसी गम में मुहर्रम की 10 तारीख को ताजिए निकाले जाते हैं.
इस दिन शिया समुदाय के लोग मातम करते हैं. मजलिस पढ़ते हैं, काले रंग के कपड़े पहनकर शोक मनाते हैं. यहां तक कि शिया समुदाय के लोग मुहर्रम की 10 तारीख को भूखे प्यासे रहते हैं क्योंकि इमाम हुसैन और उनके काफिले को लोगों को भी भूखा रखा गया था और भूख की हालत में ही उनको शहीद किया गया था. जबकि सुन्नी समुदाय के लोग रोजा-नमाज करके अपना दुख जाहिर करते हैं.
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